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इस मामले में मुख्य मुद्दा उत्तर प्रदेश में पारिवारिक अदालतों की देखरेख की जिम्मेदारी हाईकोर्ट को दिए जाने के विरोधाभाषी नियमों को लेकर है। राज्य सरकार द्वारा पास उत्तर प्रदेश पारिवारिक अदालत नियम, 1995 के नियम 36 कहता है कि सभी पारिवारिक अदालतें हाईकोर्ट की देखरेख में काम करेंगी।
हालांकि, हाईकोर्ट द्वारा पास उत्तर प्रदेश पारिवारिक अदालत नियम, 2006 के नियम 58 के अनुसार पारिवारिक अदालत के जज जिला जज की प्रशासनिक एवं अनुशासनात्मक देखरेख के तहत आएंगे। अलबत्ता, इन पर हाईकोर्ट का पूर्ण नियंत्रण होगा।
उत्तर प्रदेश न्यायिक सेवा एसोसिएशन ने नियम 58 को खत्म करने के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। उसने इसके 1995 की नियमावली के नियम 26 के विरोधाभाषी होने और संविधान के अनुच्छेद 235 का उल्लंघन करने की दलील दी थी। इस पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता के पक्ष में फैसला देते हुए मामले को हाईकोर्ट की प्रशासनिक इकाई के पास भेजने का निर्देश दिया था। ताकि नियम 58 के लिए उपयुक्त संशोधन किया जा सके और पारिवारिक अदालतों को प्रभावी तरीके से हाईकोर्ट की देखरेख में लाया जा सके। इसी फैसले के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट सुप्रीम कोर्ट पहुंचा है।
याचिकाकर्ता की दलील -
1- हाईकोर्ट का उत्प्रेषण आज्ञापत्र जारी करना और उसी अदालत के समक्ष रिकॉर्ड पेश करने को कहना न्यायिक अधिकारों के दायरे से आगे जाना है। हाईकोर्ट सिर्फ निचली अदालतों के खिलाफ ही उतप्रेषण आज्ञापत्र जारी कर सकता है, न कि अपने खिलाफ। ऐसा करके हाईकोर्ट ने अपने अधिकारक्षेत्र को लांघा है और यह फैसला कानूनन सही नहीं है।
2- पारिवारिक अदालत अधिनियम, 1984 के अनुसार, पारिवारिक अदालत के कामकाज के लिए नियम बनाने का अधिकार भले ही राज्य सरकार के साथ-साथ हाईकोर्ट को हो लेकिन नियुक्तियों आदि के मामले में अंतिम फैसला हाईकोर्ट का ही होता है। ऐसा न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए किया गया है।
3- उत्तर प्रदेश की वित्तीय स्थिति को देखते हुए यह संभव नहीं है कि जिला जज के पद वाले उच्च न्यायिक सेवा के अधिकारी को पारिवारिक अदालत का मुख्य जज बनाया जाए।
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